अभी भी याद आ रहा है, जब मैं अपने गाँव के उस बुजुर्ग पंडीजी से यह कहानी सुन रहा था तो भूत-प्रेत के साथ ही उनकी यात्रा के दौरान विस्मय कर देने वाली बातें तो मुझे एक ऐसी दुनिया की सैर करा रही थीं, जहाँ से मैं बिलकुल हीअनजान था और तब यह सोच भी नहीं सकता था कि ऐसा भी है या ऐसा भी हो सकता है? जी हाँ, घटना घटने के समय हमारे गाँव के वो खमेसर पंडीजी बर्मा (अब म्यांमार) में चीनी मिल में नौकरी करते थे।
आज भी गाँवों आदि में अगर कोई व्यक्ति गाँव से दूर खेतों, बागों आदिमें हो या किसी सुनसान जगह पर हो तो कुछ भी खाने से पहले उस खानेवाले वस्तु का कुछभाग उस जगह पर गिरा (चढ़ा) देता है ताकि उसके सिवा अगर वहाँ कोई है, जैसे कि कोई न दिखने वाला प्राणी, प्रेत आदि तो वह उसे ग्रहण कर ले।
गँवई लोग गाँव के बाहर अगर कहीं सूनसान क्षेत्र में होते हैं, या किसी ऐसे क्षेत्र में जहाँ उनको लगता है कि यहाँ आस-पास में कोई अदृश्य आत्मा हो सकती है तो वे लोग जब भी सूर्ती (तंबाकू) बनाते हैं तो खाने से पहले थोड़ा सा उस अदृश्य आत्मा के लिए गिरा (चढ़ा) देते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि अगर सूर्ती नहीं चढ़ाएंगे तो अदृश्य आत्मा नाराज होकर उनको परेशान कर सकती है। सुनी-सुनाई बात बता रहा हूँ, कई बार कितने ग्रामीणों को एकांतमें सूर्ती (तंबाकू) मसलकर बिना चढ़ाए खुद खाने की सजा मिल चुकी है।
जी, हाँ आस-पास का प्रेत उन लोगों को कभी-कभी तो पटककर मारा है या बहुत परेशान किया है और कभी-कभी तो ऐसे लोगों को उस खिसियाए भूत से अपनी जान बचाने के लिए सूर्ती का पूरा पत्ता ही चढ़ाना पड़ा है और साथ में लंगोट आदि भी। सूर्ती (तंबाकू) का जिक्र इसलिए कर रहा हूँ कि इस कहानी का सही सूत्रधार सूर्ती (तंबाकू) ही है, अगर उस समय इस सूर्ती (तंबाकू) ने अपना कमाल नहीं दिखाया होता तो शायद यह कहानी कभी जनम ही नहीं लेती।
चीनी मिल में हमारे गाँव के खमेसर पंडीजी के साथ ही अन्य कई भारतीय भी नौकरी करते थे। एक बार खमेसर पंडीजी ने उस चीनी मिल में काम करने वाले अपने कुछ भारतीय दोस्तों से कहा कि क्यों न हम लोग एक बार हिमालय की यात्रा पर, हिमालय के दर्शन करने के लिए चलें। मुझे बहुत ही इच्छा है कि हिमालय की सैर करूँ, 1-2 हफ्ते हिमालय में रहकर हिमालय वासियों से मिलूँ, उनके रहन-सहन देखूँ और साथ ही अपने दादाजी से बराबर सुनते आया हूँ कि हिमालय में यति (हिममानव) के साथ ही बहुत सारेविलक्षण जीव रहते हैं।
उन्होंने आगे कहा कि मैं तो अपने दादाजी से सुन रखा हूँ किहिमालय की कंदराओं में आज भी बहुत सारे संत पूजा-पाठ करते, धूँई रमाए हुए और समाधि में लीन देखे जा सकते हैं। उन्होंने आगे यह भी बताया कि हिमालय में सिद्ध महात्मा लोग रहते हैं, जिनके दर्शनमात्र से सारे मनोरथ पूरे हो जाते हैं। इतना ही नहीं हिमालय में दिव्य औधषियाँ पाई जाती हैं, जिनके दर्शन या स्पर्श मात्र से बड़े-बड़े रोग अपने आप ठीक हो जाते हैं।
उन्होंने अपने साथियों को बताया कि कैसे एक बार उनके दादाजी अपने कुछ साथियों के साथ हिमालय में गए हुए थे। उनके एक साथी को कोई असाध्य चर्मरोग था पर पता नहीं हिमालय में उसके पैरों आदि से ऐसी कौन-सी दिव्य औषधि टकरा गई की 2-3 दिन में ही उसका असाध्य चर्म रोग ठीक हो गया। खमेसर पंडीजी की यह अलौकिक बातें सुनकर उनके चार साथी हिमालय की यात्रा के लिए तैयार हो गए।
आज हिमालय भले अतिक्रमण का शिकार हो रहा है, लोग वहां भी गंदगी फैला रहे हैं, उस दिव्य क्षेत्र को प्रदूषित कर रहे हैं पर इस घटना (75-80 साल पहले) के समय हिमालय की दिव्यता, सौंदर्य, स्वच्छता स्वर्गिक आनंद का बोध कराती थी। हिमालय की आबोहवा में सांस लेना अपने आप में स्फूर्तभर देता था, मन में आनंद का संचार कर देता था। मानव कीक्रूरता, स्वार्थ की आलोचना करते समय अक्सर चिंतक, लेखक बहक जाता है, अच्छा हो कि हम लोग सीधे कहानी की ओर चलें नहीं तो कहनी कहानी है, बतानी कहानी है और हम मानव के अमानव रूप का वर्णन करने में लग जाएंगे।
खमेसर पंडीजी अपने चार अनुभवी, बहादुर साथियों के साथ हिमालय की यात्रा पर निकल गए। उन्होंने हिमालयी क्षेत्र में कई हफ्ते बिताए और बहुत सारी अलौकिक, विस्मयभरी बातें, घटनाएँ देखीं। रोंगटे खड़ी कर देनी वाली यह घटना आज भी मेरे जेहन में वैसे ही मौजूद है जैसे मैंने उन पंडीजी से 20-25 वर्ष पहले सुन रखी है। पंडीजी ने बताया कि एक दिन वे बहुत ही सुबह अपने साथियों के साथ हिमालय के एक छोटे शिखर पर चढ़ रहे थे तो लगभग 300 मीटर की दूरी पर उन लोगों को एक बहुत ही विशाल मानव दिखाई दिया।
उन्होंने जैसा कि अपने दादाजी से सुन रखा था कि हिमालय में विशाल मानव जिन्हें यति या हिममानव कहते हैं, घूमते रहते हैं। उन्हें उस विशाल मानव को देखकर बहुत ही कौतुहल हुआ और उन्होंने अपने साथियों से कहा कि हम लोग छिप-छिपकर इस महामानव का पीछा करते हैं और इसके बारे में कुछ बातें पता करते हैं। फिर क्या था उस विशाल मानव का पीछा करने के चक्कर में ये लोग हिमालय की उस पहाड़ी पर कब बहुत ही ऊपर चढ़ गए और लगभग दोपहर भी हो गई, इन लोगों को पता ही नहीं चला। वह विशाल मानव भी बहुत दूर होते-होते कहीं गायब हो गया था या किसी गुफा में प्रवेश कर गया था।
खमेसर पंडीजी के एक साथी ने कहा कि हम लोग काफी ऊपर चढ़ आए हैं औरकाफी समय भी हो गया है। भूख भी सताने लगी है और अत्यधिक प्यास भी, साथ ही हम लोगोंके पास न कुछ खाने को है और न ही पानी ही। फिर क्या था अब वे लोग उस पहाड़ी परपानी की तलाश में, कुछ खाद्य फलों की तलाश में आस-पास भटकने लगे। अचानक उन लोगोंको आभास हुआ कि वे लोग रास्ता भटक गए हैं, यह आभास होते ही सबकी साँस अटक गई। अबक्या किया जाए, किधर जाया जाए।
एक पेड़ के नीचे वे लोग बैठकर भगवान से गुहार करनेलगे कि काश कोई आ जाए और उन्हें रास्ता दिखा दे। पर शायद वे लोग गलती से ऐसेक्षेत्र में प्रवेश कर गए थे जहाँ किसी अन्य मनुष्य का नामो-निशान नहीं लग रहा था।धीरे-धीरे शाम भी होने लगी थी और प्यास-भूख से इन लोगों का बहुत ही बुरा हाल होरहा था। दिमाग भी काम करना बंद कर दिया था। अब कोई चमत्कार ही इन्हें बचा सकता था।खैर इनके साथ ही इनके चारों साथी भी बहुत ही हिम्मती थे। उन लोगों ने आपस में एकदूसरे को हिम्मत और धैर्य बनाए रखने के लिए कहा।
खमेसर पंडीजी ने कहा कि हमें ईश्वर पर पूरा विश्वास है और जरूर हम लोग इस परेशानी से बाहर निकलेंगे। अचानक इनके एक साथी ने अपनी सूर्ती वाली थैली टटोली और उसमें से सूर्ती निकाल कर उसमें चूना मिलाकर मसलते हुए कहा कि दिमाग काम नहीं कर रहा है तो क्यों न सूर्ती (तंबाकू) का आनंद लिया जाए। इतना कहकर वह सूर्ती को मसलने लगा। सूर्ती को मसलने और थोंकने के बाद परंपरानुसार, अपनी आदत अनुसार उसने अपने साथियों को सूर्ती देने से पहले थोड़ी सी सूर्ती वहां यह कहते हुए गिरा दिया कि जय हो यहाँ के भूत-प्रेत, बाबा आदि। कृपया ग्रहण करें और हम लोगों की भूल को क्षमा करते हुए हमें राह दिखाएँ, हमें घर पहुँचाएँ।
जी हाँ, उस चढ़ाई हुई सूर्ती ने अपना काम कर दिया। अचानक वहाँ बहुत ही भयानक और तीव्र हवा चली, आस-पास के छोटे-छोटे पेड़ अजीब तरह से एक दूसरे से टकराए और एक विशाल भूतकायाप्रकट हो गई। वह काया देखने में तो इंसान जैसी ही थी पर आकार-प्रकार में एकदम अलगजो उसके प्रेत होने की पुष्टि कर रही थी।
खमेसरजी और उनके साथी डरे नहीं अपितु हाथजोड़कर अभिवादन की मुद्रा में उस विशाल काया की ओर देखने लगे। खमेसरजी और उनका कोई साथ कुछ बोले इससे पहले ही वह विशाल काया तड़प उठी। बहुत दिनों के बाद कुछ खाने को मिला है। तुम लोगों का मैं शुक्रगुजार हूँ। इसके बाद उस विशाल काया ने कहा कि मुझसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मैं इस क्षेत्र में चाहकर भी किसी का नुकसान नहीं पहुँचा सकता।
इसके बाद वह प्रेत काया वहाँ से जाए इससे पहले ही खमेसर पंडीजी ने कहा कि हे भूतनाथ! हम लोग रास्ता भटक गए हैं, कृपया हमें नीचे तक बस्ती में जाने का मार्ग बताएँ। खमेसर पंडीजी की बात सुनकर वह प्रेत पहले तो हँसा पर फिर अचानक गंभीर हो गया। उसने कहा कि मैं तो खुद ही भटक गया हूँ। सालों हो गए, इस क्षेत्र से निकलने की कोशिश कर रहा हूँ पर खुद ही नहीं निकल पा रहा हूँ। उसने आगे कहा कि मैं ब्राह्मण हूँ। बहुत पहले इस क्षेत्र में आया था। एक गुफा में एक महात्मा की सेवा में लग गया था क्योंकि मुझे सिद्धियाँ प्राप्त करनी थीं।
एक दिन मुझसे एक घिनौना अपराध हो गया। मैंने महात्माजी के समाधि में जाने के बाद धीरे से उठा और उस गुफे के बाहर आ गया। गुफे से बाहर आने के बाद अपनी थोड़ी सी शक्ति जो मुझे प्राप्त हुई थी उसके बल पर आस-पास अपने तपोबल से नजर दौड़ाई। मुझे पास में ही किसी भूतनी केहोने का आभास हुआ। मैंने अपनी शक्ति से उसे अपनी ओर खींच लिया और उसे एक सुंदरयुवती में परिवर्तित कर दिया। फिर मैं उसके साथ विहार करने लगा। मैं विहार मेंइतना लीन था कि मुझे पता ही नहीं चला कि मेरे महात्मा गुरुजी मेरे पास आ गए हैं।अचानक मुझे भान हुआ कि मेरे गुरुजी गुस्से में जल रहे हैं। मैं काँपने लगा और इशारे में उस भूतनी को भागने के लिए कहा।
कुछ बोलूँ इससे पहले ही मेरे गुरुजी बोल होते, “नीच ब्राह्मण! तूने ब्राह्मण का, तपोशक्तियों का अनादर किया है। तूँ जीने का अधिकारी नहीं। मैं तूझे श्राप देता हूँ कि तूँ भी मनुष्य योनि त्यागकर प्रेत हो जा।” गुरुजी के इतना कहते ही मेरा शरीर जलने लगा और मैं कुछ कर पाता इससे पहले ही मनुष्य योनि त्यागकर प्रेत योनि में आ गया था। इसके बाद गुरुजी ने कहा कि तूँ आस-पास के क्षेत्र में ही भटकता रहेगा और अपने किए की सजा भुगतता रहेगा और इतना कहकर गुरुजी गुफा में प्रवेश कर गए। फिर मैंने कई बार सोचा कि गुफा में जाकर अपने गुरु से क्षमा माँगू पर जब भी उस गुफा की ओर बढ़ने की कोशिश करता हूँ, शरीर जलने लगती है और कोई बड़ी शक्ति मुझे गुफा में प्रवेश नहीं करने देती।
इसके बाद उस ब्रह्मपिशाच ने कहा कि शायद आप लोग गुफा में प्रवेश कर जाएँ। उसने कहा कि अगर आप लोग गुफा में प्रवेश कर जाएंगे तो आप लोगों की जान अवश्य बच जाएगी, क्योंकि गुफा में बहुत सारे सिद्ध, अतिसिद्ध महात्मा रहते हैं, वे लोग अपने तपोबल से आप सबको नीचे बस्ती में पहुँचा सकते हैं। इसके बाद उस ब्रह्मपिशाच ने कहा कि निडर होकर मेरे साथ आइए, मैं गुफा का द्वार दिखाता हूँ। फिर क्या था बिना कुछ बोले या दिमाग पर जोर डाले हम लोग उस प्रेत के पीछे हो लिए। कुछ दूर चलने के बाद हमें कुछ ऊँचाई पर एक गुफा की आकृति दिखी।
उस प्रेत ने बताया कि थोड़ा ऊपर जो एक छेद दिख रहा है, आप लोग उससे गुफा में प्रवेश करने की कोशिश करें। हम सभी लोग उस प्रेत की बात सुनकर हतप्रभ हो गए। हम लोग कोई छोटे-मोटे जीव, साँप, बिल्ली आदि हैं क्या कि इस पतले छेद से अंदर जा पाएंगे? शायद वह ब्रह्मप्रेत हमारे मन की बात जान गया। उसने अट्टहास किया औरबोला, अरे डरिए मत।
यह अलौलिक द्वार है। अगर आप लोगों ने थोड़ा भी पुन्य किया है, या अच्छे इंसान होंगे तो इस पतले छेद के पास पहुँचकर प्रार्थना करने पर, नमस्कार करने पर यह छेद अपने आप आप लोगों को मार्ग दे देदा यानी बड़ा-चौड़ा हो जाएगा। हम साथियों ने इशारे ही इशारे में एक दूसरे की सहमति लेकर उस पतले छेद के पास पहुँचे। फिर क्या था, हम लोग झुककर उस छेद को प्रणाम किए। अरे यह क्या चमत्कार हो गया और वह पतला छेद एक बड़े आकार में बदल गया। फिर हम लोगों ने उस प्रेत महानुभाव को नमस्कार व विदा करते हुए उस गुफा में प्रवेश कर गए।
अनोखी, अद्भुत, अलौकिक, स्वर्गिक गुफा। जिसका वर्णन हो ही नहीं सकता। गुफा में हम लोग ज्यों-ज्यों अंदर बढ़ते गए, हम लोगों की थकावत, डर छूमंतर होते गए। एक ऐसा आनंद जो शायद आनंद की पराकाष्ठा हो। अब भले हम लोगों के साथ जो भी पर हमारा मनुज जन्म सफल हो गया था। हम लोगों को इस बात का भी गर्व हो रहा था कि वास्तव में हम लोग अच्छे इंसान हैं, तभी तो इस गुफा ने हमें अंदर आने के लिए मार्ग दे दिया।
खैर मैं (प्रभाकर पांडेय) भी अब इस अनोखी, रहस्यमयी, सभी सुखों को देने वाली, दिव्य गुफा में रहना चाहता हूँ और परमानंद की प्राप्ति करना चाहता हूँ। मैं ऐसा करूँ इससे पहले मेरा फर्ज यह भी है कि मैं अपने पाठक महानुभावों के लिए इस कहानी को पूरा करूँ।
गुफा में और कुछ अंदर जाने पर अचानक इन लोगों को रुकना पड़ा। क्योंकि सामने से इन्हें जंगली हिंसक पशु आते हुए दिखाई दे रहे थे तो कभी उफनती नदी इन्हें बहा ले जाने का प्रयास कर रही थी तो कभी प्रज्ज्वलित आगे बढ़ती अग्नि इन्हें जलाने का पर यह सब माया जैसा ही लग रहा था क्योंकि न वे हिंसक पशु इन्हें नुकसान पहुँचा रहे थे और ना ही नदी इन्हें भिगो रही थी और ना ही अग्नि इन्हें जला रही थी। इस हिम्मती दल ने हिम्मत दिखाई और आगे बढ़ना जारी रखा। कुछ दूर और आगे जाने पर एक महात्मा दिखे। जिनका शरीर दिव्य था।
पूरे शरीर से आभा निकल रही थी, मस्तक सूर्य जैसा चमक रहा था, चेहरे पर एक अतुल्य, रहस्यमय मुस्कान तैर रही थी और वे दिव्य महात्मा धीरे-धीरे चहलकदमी कर रहे थे। हम लोग सहम गए और हाथ जोड़कर जहाँ थे वहीं खड़े हो गए। फिर क्या हुआ कि उस दिव्य महात्मा ने हमें और अंदर आने के लिए कहा और बिना कुछ बोले गुफा में एक तरफ बैठ जाने का इशारा किया।
उस गुफा की सबसे रहस्य, अलौकिक बात यह थी कि जिस किसी को जितनी जगह चाहिए थी, वह अपने आप मिल जाती, बन जाती थी। अरे यह क्या, ज्योंही हम लोग बैठने लगे, पता नहीं कहाँ से हमारे बैठने वाली जगह पर खूबसूरत व आरामदायक बिस्तर बिछ गए। फिर उस महात्मा की सौम्य आवाज सुनाई दी, “मनुज श्रेष्ठ! लगता है कि आप लोग रास्ता भटक गए हैं और काफी देर से परेशान हैं। आप लोगों को भूख और प्यास भी खूब लगी है।
आप लोगों को रास्ता बताने से पहल हमारा यह भी कर्तव्य बनता है कि आप अतिथियों की सेवा करूँ।” इतना कहने के बाद उस महात्माजी ने वहीं पास में उगी तुलसी माता के कुछ पत्तों को तोड़ा और हम पाँचों के सामने एक-एक रख दिए। फिर क्या था, एक नया, रहस्यमयी चमत्कार। मिनटों नहीं लगे उस तुलसी पत्ते को थाली-गिलास-स्वादिष्ट व्यंजनों में तब्दील होने में। सब से अनोखी बात यह थी कि हम सबके थाली में अलग-अलग व्यंजन थे यानि हमारे मन में उस समय जो खाने की इच्छा हो रही थी, उन्हीं व्यंजनों से हम लोगों की थाली भरी पड़ी थी। फिर क्या था उस दिव्य महात्मा का आदेश मिलते ही हम लोगों ने छक-छककर उस दिव्य प्रसाद का आनंद उठाकर पूरी तरह से तृप्त हो गए।
भोजन करने के बाद उस महात्माजी ने कहा कि इस गुफा में बहुत सारे महात्मा समाधि, पूजा-पाठ में लीन हैं। आप लोग अब इस गुफा में इससे आगे नहीं जासकते। मैं तो इन दिव्य गुरुओं का एक छोटा सा सेवक मात्र हूँ जो इन सबकी सेवा में लगा रहता हूँ। उस दिव्य महात्मा ने यह भी बताया कि वे काशी (बनारस) के पास के रहने वाले हैं और बचपन में ही संसार त्यागकर हिमालय में आ गए थे और काफी भटकने के बाद एक दिन एक महात्मा उन्हें इस गुफा में लेकर आए, तब से वे वहीं हैं और महात्माओं की सेवा में लगे हुए हैं।
उन्होंने आगे बताया कि उन्हें इस गुफा में आए लगभग 5 सौ सालसे अधिक हो गए हैं। फिर उन्होंने कहा कि अब आप लोगों को यहाँ से फौरन निकलना चाहिए, क्योंकि अगर किसी अन्य गुरु महात्मा की नजर आप सब पर पड़ गई तो आप लोग भस्म भी हो सकते हैं क्योंकि न चाहकर भी कोई आम इंसान, प्राणी इन दिव्य महात्माओं के दिव्य नेत्र से जलने से नहीं बच सकता।
हम लोग कुछ बोलें, इससे पहले ही उस महात्मा ने कहा कि आप लोग आँख बंद करें। हम सभी लोगों ने उस दिव्य महात्मा के आदेश का पालन करते हुए अपने नेत्रों को बंद कर लिया। फिर उस महात्मा की आवाज आई, अब आप लोग अपनी आँख खोलें। चमत्कार। अद्भुत, अविस्मरणीय चमत्कार। जब हम लोगों ने आँखें खोली तो अपने आप को हिमालयी क्षेत्र में उस बस्ती के पास खड़े पाए जहाँ हम लोग ठहरे हुए थे। कहानी खतम हुई।
आप भले मानें या न मानें, बहुत सारे चमत्कार, रहस्यमय बातें हैं, जिनपर विज्ञान का वश नहीं चलता। कहानी तो खतम हो गई है पर खतम होने से पहले इसने एक कहानी को जन्म दे दिया है। जी हाँ। फिर खमेसर पंडीजी अगले दिन उस गुफा की तलाशमें, उन दिव्य गुरुओं का शिष्य बनने के लिए अपने एक साथी के साथ चल पड़े। फिर क्याहुआ उस खमेसर पंडीजी और उनके साथी के साथ? अगली कहानी में। प्रेम से बोलिए जय बजरंगबली। जय-जय रहस्यमयता, जय-जय चमत्कारिता
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