पिछली कहानी में आपने जाना था रमकलिया को। एक षोडशी, एक ऐसी किशोरी जो बिंदास स्वभाव की थी, निडरता की महारानी थी। यहाँ पिछली कहानी के अंतिम पैराग्राफ को देना उचित प्रतीत हो रहा है- {एक दिन सूर्य डूबने को थे। चरवाहे अपने गाय-भैंस, बकरियों को हांकते हुए गाँव की ओर चल दिए थे। अंधेरा छाने लगा था। ऐसे समय में रमकलिया को पता नहीं क्या सूझा कि वह अपनी साइकिल उठाई और बगीचे की ओर चली गई।
आज उसने बगीचे में पहुँच कर साइकिल को एक जगह खड़ा कर खुद ही पास में खड़ी हो गई। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। उसे पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि कोई तो है जो अभी उसे उस बगीचे में बुलाया और वह भी अपने आप को रोक न सकी और खिंचते हुए इस बगीचे की ओर चली आई।
2-4 मिनट खड़ा रहने के बाद रमकलिया थोड़ा तन गई, अपने सुकोमल हृदय को कठोर बनाकर बुदबुदाई, “अगर यह कोई इंसान न होकर, भूत निकला तो! खैर जो भी हो, मुझे पता नहीं क्यों, इस रहस्यमयी जीव से मुझे प्रेम हो गया है। भूत हो या कोई दैवी आत्मा, अब तो मैं इससे मिलकर ही रहूँगी। इंसान, इंसान को अपना बनाता है, मैं अब इस दैवी आत्मा को अपना हमसफर बनाऊंगी।
देखती हूँ, इस अनजाने, अनसमझे प्यार का परिणाम क्या होता है? अगर वह इंसान नहीं तो कौन है और किस दुनिया का रहने वाला है, कैसी है उसकी दुनिया?” यह सब सोचती हुई, रमकलिया अपने साइकिल का हैंडल पकड़ी और उसे डुगराते हुए बगीचे से बाहर आने लगी। अब बगीचे में पूरा अंधेरा पसर गया था और साथ ही सन्नाटा भी। हाँ रह-रह कर कभी-कभी गाँव की ओर से कोई आवाज उठ आती थी।}
रात को रमकलिया अपने कमरे में बिस्तरे पर करवटें बदल रही थी। नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। एक अजीब सिहरन, गुदगुदी का एहसास हो रहा था उसको। उसे कभी हँसना तो कभी रोना आ रहा था। तभी अचानक उस कमरे के जंगले से एक बहुत ही तेज, डरावनी सरसराती हवा अचानक कमरे में प्रवेश की। बिना बहती हवा के अचानक कमरे में पैठी इस डरावनी हवा से रमकलिया थोड़ी सहम गई और फटाक से उठकर बैठ गई।
उसकी साँसें काफी तेज हो गई थीं। वह धीरे-धीरे लंबी साँस लेकर अपने बढ़ते दिल की धड़कन को भी काबू में करने का प्रयास किया तभी उसे ऐसा लगा कि कोई उसके कान में हौले-हौले, भारी आवाज में गुनगुना रहा हो, “बढ़ती दिल की धड़कन कुछ तो कह रही है, मैं तेरा दिवाना, जलता परवाना हूँ, तूँ क्यों नहीं समझ रही है?” इसी के साथ उसे लगा कि वह सरसराती हवा उसके बिस्तरे के बगल में हल्के से मूर्त रूप में स्थिर हो गई है पर कुछ भी स्पष्ट नहीं है। अचानक उसे लगा कि वही (बगीचे में वाले) सुकोमल हाथ फिर से उसके बालों के साथ खेलने लगे हैं, उसे एक चरम आनंद की अनुभूति करा रहे हैं।
वह चाहकर भी कुछ न कह सकी और धीरे-धीरे फिर से लेट गई। अरे यह क्या उसके लेटते ही ऐसा लगा कि उसके कमरे में रखी एक काठ-कुर्सी सरकते हुए उसके सिरहाने की ओर आ रही है। वह करवट बदली और उस काठ-कुर्सी की ओर नजर घुमाई तब तक वह काठ-कुर्सी उसके सिरहाने आकर लग गई। फिर बिना कुछ कहे एक मदमस्त, अल्हड़, प्रेमांगना की तरह अँगराई लेते हुए, साँसों को तेजी के साथ छोड़ते हुए वह फिर से चुपचाप बिस्तरे पर लेट गई। उसके लेटते ही वह सुकोमल हाथ फिर से उसके बालों से खेलने लगे। वह एक कल्पित दुनिया की सैर पर निकल गई।
यह कल्पित दुनिया अलौकिक थी। इस दुनिया की इकलौटी राजकुमारी रमकलिया ही थी जिसे एक अपने सेवक से प्रेम हो गया था। वह इस कल्पित दुनिया में आनंदित होकर विचरण कर रही थी। अचानक रमकलिया को इस कल्पित दुनिया से बाहर आना पड़ा क्योंकि से लगा कि कोई उसका सिर पकड़ कर जोर-जोर से हिला रहा है यानि जगाने की कोशिश कर रहा हो। रमकलिया को लगा कि कहीं यह भी स्वप्न तो नहीं पर वह तो जगी हुई ही थी। वह उठकर बैठ गई। फिर उस कमरे में शुरू हुई एक ऐसी कहानी जो रमकलिया को उसके पिछले जन्म में लेकर चली गई।
रमकलिया बिस्तरे पर सावधान की मुद्रा में बैठी हुई थी। काठ-कुर्सी पर मूर्त रूप में पर पूरी तरह से अस्पष्ट हवा का रूप विराजमान था और वहाँ से एक मर्दानी भारी आवाज सुनाई दे रही थी। वह आवाज कह रही थी, “रमकलिया तूँ मेरी है सिर्फ मेरी। मैं पिछले दो-तीन जन्मों से तुझे प्रेम करता आ रहा हूँ। मैंने हर जन्म में तुझे अपनाने के लिए कुछ-न-कुछ गलत कदम उठाया है। पर इस जन्म में मैं तूझे सच्चाई से पाना चाहूँगा।”
वह आवाज आगे बोली, “याद है, पिछले जन्म में भी मैं तुझे अथाह प्रेम करता था। पर तूँ मेरे प्रेम को नहीं समझ सकी और मैं भी बावला, पागल तूझे पेड़ से धक्का दे दिया था। (यहाँ मैं आप लोगों को रमेसरा की कहानी की याद दिलाना चाहूँगा।जो गाँव की गोरी थी और उसे एक भेड़ीहार का लड़का अपना बनाना चाहता था, पर रमेसरा के पिता द्वारा मना करने पर उस भेड़ीहार-पुत्र ने आत्महत्या कर ली थी और प्रेत हो गया था। बाद में वही प्रेत रमेसरा को ओल्हा-पाती खेलते समय धक्का दे दिया था और वही रमेसरा अब रमकलिया के रूप में फिर से पैदा हुई थी। आभार।) मैं वही हूँ पर अब बदल गया हूँ। भले मैं आत्मा हूँ, एक प्रेत हूँ पर अब मैं अपनी प्रियतमा का कोई अहित नहीं करूँगा और अब उसे नफरत से नहीं प्रेम से जीतूँगा।”
उस हवा रूपी आवाज की बातें सुनकर रमकलिया एक पागल प्रेमी की तरह उठकर उस कुर्सी पर विराजमान मूर्त पर अस्पष्ट हवा से लिपट गई। वह सिसक-सिसक कर कहने लगी, तूँ जो भी हो पर है मेरा प्रियतम। मैं अब तेरे बिना जी नहीं सकती। तूँ अब देर न कर। अभी मेरी माँग में सिंदुर भर और मुझे अपना बना। मुझे सदा-सदा के लिए अपने साथ ले चल। इतना कहने के बाद रमकलिया को पता नहीं अचानक क्या हुआ कि वह बिस्तरे पर गिर गई।
सुबह-सुबह रमकलिया के माता-पिता रमकलिया के कमरे का दरवाजा पीटे जा रहे हैं पर वह उठने का नाम नहीं ले रही है। रमकलिया के माता-पिता बहुत ही परेशान हैं क्योंकि रमकलिया के कमरे से कोई सुगबुगाहट नहीं आ रही है। आस-पास के कुछ लोग भी एकत्र हो गए हैं। सब चिल्ला-चिल्लाकर रमकलिया को जगाना चाहते हैं। अंततः रमकलिया के माता-पिता ने कमरे का दरवाजा तोड़ने का फैसला किया क्योंकि वे अब किसी अनहोनी की आसा में पीले पड़ते जा रहे थे। लकड़ी के दरवाजे पर कसकर एक लात पड़ते ही अंदर से लगी उसकी किल्ली निकल गई और भड़ाक से करके दरवाजा खुल गया।
दरवाजा खुलते ही रमकलिया के माता-पिता रमकलिया के बिस्तर की ओर भागे। साथ में आस-पास के कई लोग भी थे। रमकलिया के कमरे का हुलिया पूरी तरह से बदला हुआ था। कमरे में एक अजीब भीनी-भीनी खुशबू पसरी हुई थी और साथ ही रमकलिया के बिस्तरे पर तरह-तरह के फूल बिछे हुए थे। पास पड़ी कुर्सी पर सिंधोरे का एक डिब्बा पड़ा हुआ था और ऐसा लग रहा था कि बिस्तरे पर रमकलिया नहीं, कोई नवविवाहिता लाल साड़ी पहनकर औंधे मुँह लेटी हुई है।
रमकलिया की माँ ने देर न की और बिस्तरे पर सोई उस महिला को झँकझोरने लगी, अरे यह क्या उस सोई तरुणी ने करवट बदला और आँखें मलते हुए उठकर बैठ गई। सभी लोग अचंभित तो थे ही पर रमकलिया का यह रूप देखकर उन्हें साँप भी सूँध गया था। दरअसल वह रमकलिया ही थी पर वह एक नवविवाहिता की तरह सँजरी-सँवरी हुई थी। उसके हाथों में लाल-लाल चुड़ियाँ थीं तो पैर में महावर लगा हुआ था। पता नहीं कहाँ से उसके पैर में नए छागल भी आ गए थे। सर पर सोने का मँगटिक्का शोभा पा रहा था और उस मँगटिक्के के नीचे सिंदूर की हल्की आभा बिखरी हुई थी।
सभी लोग हैरान-परेशान। अरे रात को ही तो रमकलिया अपने कमरे में आई थी। रात को उसके कमरे में कोई सुगबुगाहट भी नहीं हुई। दरवाजा भी नहीं खुला तो इतना सारा सामान कहाँ से आ गया था उसके कमरे में। उसे एक नवदुल्लहन की तरह कौन सजा गया था। क्योंकि उसको जिस तरह से सजाया गया था उससे ऐला लग रहा था कि कोई 8-10 महिलाओं ने 2-4 घंटे मेहनत करके उसे सजाया है। रमकलिया के माता-पिता परेशान थे कि उनके घर में इतना कुछ हो गया और उनके कान पर जूँ तक नहीं।
रमकलिया बिस्तरे से उठी। उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी। वह अपने कमरे में स्तब्ध खड़ें लोगों विशेषकर अपने पिता और माता की ओर देखने लगी। वह धीरे-धीरे चलकर अपने माता के पास गई और उनके गले लग गई। उसने कहा कि माँ, मैं अब विवाहिता हूँ। इसके बाद भी उसकी माँ कुछ बोल न सकी। सभी लोग आश्चर्य में डूबे। धीरे-धीरे यह बात गाँव क्या पूरे जवार और जिले में पैल गई। लोग रमकलिया के गाँव की तरफ आते और सच्चाई जानने की कोशिश करते पर गाँव के लोगों की सुनी बातों पर अविश्वास से सिर हिलाते चले जाते।
जी हाँ। उस रात उस प्रेत ने रमकलिया से विवाह करके उसे सदा के लिए अपना बना लिया था। इस कहानी में एक कड़ी और जुड़ती हुई प्रतीत हो रही है। अगर आप पाठकों का आदेश होगा तो मैं इसमें एक कड़ी और जोड़ना चाहूँगा। खैर तबतक के लिए राम-राम, नमस्कार। पर हाँ यह बताना न भूलें हमारी कल्पित कहानियाँ आपको कैसी लगती हैं। हर प्रकार की आलोचना का सादर अभिनन्दन। जय बजरंग बली।
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